अनमोल वचन

बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर

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बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है ।

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है
पर सच कहता हूँ मुझमें कोई फरेब नहीं है ।

जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्योंकि
एक मुद्दत से मैंने न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले ।

एक घड़ी ख़रीदकर हाथ में क्या बाँध ली,
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे ।

सोचा था घर बना कर बैठूँगा सुकून से;
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला ।

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब,
बचपन वाला ‘इतवार’ अब नहीं आता ।

शौक तो माँ-बाप के पैसों से पूरे होते हैं,
अपने पैसों से तो बस ज़रूरतें ही पूरी हो पाती हैं ।

जीवन की भाग-दौड़ में क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है ।

एक सबेरा था जब हँस कर उठते थे हम,
और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है ।

कितने दूर निकल गए, रिश्तों को निभाते-निभाते;
खुद को खो दिया हमने, अपनों को पाते-पाते ।

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहुत हैं
और हम थक गए दर्द छुपाते-छुपाते ।

खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह करता हूँ ।

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा, फिर भी,
कुछ अनमोल लोगों से रिश्ता रखता हूँ ।

हरिवंश राय बच्चन की ये हैं श्रेष्ठ 5 छोटी कविताएं…

ओ गगन के जगमगाते दीप!

दीन जीवन के दुलारे
खो गये जो स्वप्न सारे,
ला सकोगे क्या उन्हें फिर खोज हृदय समीप?
ओ गगन के जगमगाते दीप!

यदि न मेरे स्वप्न पाते,
क्यों नहीं तुम खोज लाते
वह घड़ी चिर शान्ति दे जो पहुँच प्राण समीप?
ओ गगन के जगमगाते दीप!

यदि न वह भी मिल रही है,
है कठिन पाना-सही है,
नींद को ही क्यों न लाते खींच पलक समीप?
ओ गगन के जगमगाते दीप!

मैंने गाकर दुख अपनाए
कभी न मेरे मन को भाया,
जब दुख मेरे ऊपर आया,
मेरा दुख अपने ऊपर ले कोई मुझे बचाए
मैंने गाकर दुख अपनाए
कभी न मेरे मन को भाया,
जब-जब मुझको गया रुलाया,
कोई मेरी अश्रु धार में अपने अश्रु मिलाए
मैंने गाकर दुख अपनाए
पर न दबा यह इच्छा पाता,
मृत्यु-सेज पर कोई आता,
कहता सिर पर हाथ फिराता
ज्ञात मुझे है, दुख जीवन में
तुमने बहुत उठाये
मैंने गाकर दुख अपनाए ।

  • मैंने गाकर दुख अपनाए कभी न मेरे मन को भाया, …
  • दुखी-मन से कुछ भी न कहो व्यर्थ उसे है ज्ञान सिखाना, …
  • मैं जीवन में कुछ न कर सका जग में अँधियारा छाया था, …
  • मैंने मान ली तब हार पूर्ण कर विश्वास जिसपर

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